07 December, 2008






मुझे कुछ पता नही कि मैं क्या हूं,
कभी जर्रा तो लगता कभी खुदा हूं
फुर्सत मिली ही नहीं अपनी तलाश की,
कभी इधर कभी उधर भटकती सदा हूं
कभी नर्मियां मिली तो कभी तल्खियां,
पतझर बसन्तों की अदा हूं
मै उन की मन्जिल ना सही रास्ता तो हूं,
इच्छाओंकी मजबूरी फर्जों का तकाजा हूं
जीना तो दुनियां में इक रस्म क तरह् है,
उन रस्मों का सदका अरमानों की चिताहूं
रस्में ना निभाउं तो खुदा भी न माफ करेगा,
दुनियां कोसेगी खुदा की खता हूं
जिन्दगी ने इस मुकाम पर पहुंचा दिया निर्मल,
भटके हुए राही की मन्जिल का पता हुं
जोर से हंस के दबा देती हुं सिस्की रूह की,
खुद ही दर्द हूं मैं खुद ही दवा हूं

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