05 September, 2009

संवेदनाओं के झरोखे से--संस्मरण गताँक से आगे

उस दिन हम मौसम का आनन्द लेते हुये लेडी डाक्टर से गीत सुन रहे थे।अचानक बडे जोर से हवा चलनी शुरू हो गयी। देखते देखते बदे तूफान का रूप धारण कर गयी सब ओर अन्धेरा छा गया हम सब कमरे मे बन्द हो गए। इतना भयंकर तूफान पहली बार देखा था। अब याद नहीं कि कितनी देर इसका ताँडव चला मगर जैसे ही क्छ थमा हम लोग एमर्जेन्सी मे आ गये। पता था कि इस से बहुत बडी तबाही हुयी होगी। हम लोग एमर्जेन्सी मे सामान तैयार करने लगे । 10 मिनट भी नहीं बीते थे तूफान थमे हुये, कि घायल लोग आने शुरू हो गये। एक घन्टे मे एमर्जेन्सी के अंदर बाहर भीड ही भीड जमा हो गयी आसपास के हिमाचल और पंजाब के गाँव इसी अस्पताल पर निर्भर थे। जो मरीज सब से अधिग गन्भीर हालत मे थे पहले उन सब को अंदर रखा गया सारे स्टाफ को डय़ूटी पर बुला लिया गया। ैतना चीख चिहाडा था कि एक दूसरे की बात सुनना भी मुश्किल था। देखते देखते उन घायलों मे 10 --12 मरीज़ अपना दम तोड चुके थे। बाकी गम्भीर चोटों से चीख रहे थे कुल मिला कर वो दृष्य किसी भी इन्सान को हिला देने के लिये काफी था।

उस समय हमे ये होश नही रही कि हमारे घरों का बच्चों का क्या हुया होगा। मैं तो जैसे जड हो गयी थी मगर उस समय ना जाने कहाँ से इतना साहस आ गया कि झट से हम मरीज़ों को संभालने लगे। उस दिन पहली बार मैने घावों पर टाँके लगाये वो भी पूरे 30। मुझे जरा भी डर नहीं लगा । हाथ कपडे सारा दिन खून से लथपथ रहे 100 से उपर मरीज़ों को राहत दी गयी थी। जो निस्सँदेह स्टाफ की मेहनत के कारण ही हुया था । और मैं खुद को उस दिन धन्य समझ रही थी कि आज मुझ मे सेवा भाव जगा था और उस दिन सोच लिया था कि अब ये नौकरी कभी नहीं छोडूँगी। नहीं तो मैं सोचा करती कि मैं ये काम नहीं कर सकूँगी। मरीज़ के सूई चुभेगी तो दर्द मेरे होगा। उस दिन मैने जाना कि हमारी संवेदनायें मरती नहीं बल्कि दूसरों को राहत पहुँचाने मे हमे शक्ति देती हैं।

हमारे भी घर का बहुत नुक्सान हुया था ।सभी स्टाफ कर्मचारियों के कुछ ना कुछ हुया ही था मगर उन्हें समय नहीं था कि अपने घरों की सुध ले सकते।देखने वाले को जरूर लगता है कि ये लोग पत्थर दिल हैं। और दीदी की वो बात धीरे धीरे वाली याद आ गयी। किसी को देख कर ही संवेदन हीन कह देना कितना आसान होता है। मैं भी तो पहले दीदी को ऐसे ही समझती थी। उस तूफान मे क्या क्या हुया ये बहुत बडी कहानी हो जायेगी। इस लिये इसे यहीं विराम देती हूँ मगर ये बता दूँ कि उस दिन सारा दिन हम लोगों ने कुछ भी खाया पीया नहीं । सुबह आठ बजे से रात के आठ बज गये थे मगर अभी पोस्टमार्टम भी सब का नहीं हुया था लगता था कि आज शायद सारी रात यहीं लगेगी। सारा शहर इन मरीज़ों की सहायता के लिये इकठा हो गया था । मुझे तो अब चक्कर आने लगा था । इतना काम कभी किया ही नहीं था । अब भूख भी बहुत जोरों से लगी थी। हम लोगों ने चाय मगवाई और सुबह के जो समोसे मंगवाये थे वही खाने लगे। बाहर अभी भी 5 लाशें पडी थीं। उस दिन फिर मुझे अपनी वो बात याद हो आयी।जब मैं दीदी को पोस्टमार्टम से आते ही चाय पीते देखा था कि दीदी आप ऐसे कैसे चाय पी लेती हो । मुझे समझ आया कि जिसे मैं संवेदन्हीनता समझ रही थी वो मजबूरी थी ,समय की माँग थी। कितना आसान होता है दूसरों की संवेदनहीनता को चिन्हित करना समझ तभी आती जब खुद उनमे से गुज़रना पडता है।---

फिर भी लोगों मे गुस्सा था कि सब को पूरी सहायता नहीं मिली जब कि सारा स्टाफ अपने घर की परवाह किये बिना काम कर रहा था। अगले दिन अस्पताल के खिलाफ नारे भी लगे। मैं ये नहीं कहती कि अस्पताल मे लापरवाही नहीं होती मगर हर बार उन्हें ही दोशी ठहरा देना सही नहीं है। आप लोगों से भी यही प्रार्थना है कि जब भी आपको ऐसा लगे तो नारेबाजी करने से पहले तथ्य जरूर देख लें कहींिस तरह आरोप लगा कर आप कर्मनिष्ठ कर्मचारियों के साथ अन्याय तो नहीं कर रहे और फिर कई बार क्षुब्ध हो कर कर्मचारी काम के प्रति उदासीन होने लगते हैं।

कुछ दिनो मे ही मुझे महसूस होने लगा कि मैं पहले से भी अधिक संवेदनशील हो गयी हूँ । काम से जब भी समय मिलता किसी ना किसी मरीज के दुख दर्द जरूर सुनती। मेरी ये कहानियां उसी संवेदना की देन है। अभी भी बहुत से पात्र मेरे दिल मे हैं जिन्हें लिखना है। कुल मिला कर कहूँ कि जितनी मुश्किल मेरी ज़िन्दगी रही थी मायके ससुराल मे जवान मौतों के कारण जिम्मेदारियां बढी थी उनका मुकावला शायद मैं इन्हीं संवेदनाओं के कारण कर सकी। ये मरीज़ मेरे दुख सुख के साथी रहे। और मेरे पिताजी मेरे पथप्रदर्श क जिन्होंने कभी मेरे साहस को ढ्हने ना दिया।इसी लिये मेरी सारी रचनायें संवेदनाओं और जीवन के बारे मे ही होती हैं। बस यही है मेरे पास। और भी बहुत से संस्मरण ऐसे हैं जिनसे मैने बहुत कुछ सीखा है फिर कभी कहूँगी।

समाप्त ।

03 September, 2009

संवेदनाओं के झरोखे से--संस्मरण--4

नौकरी छोडने की बात मन मे घर करने लगी थी। अगले दिनो मे भी बहुत कुछ देखा मगर वही दीदी की बात कि धीरे धीरे सब ठीक हो जायेगा । 10 --15 दिन ऐसे ही निकल गये।इस संस्मरण को लिखना तो नहीं चाहती थी मगर इसे लिखने का मकसद इतना है कि सेहत विभाग वालों के प्रति एक आम भावना होती है कि ये लोग बहुत बेशर्म या खुले विचारों के होते हैं या इनकी भाशा को ले कर कई चुटकुले घडे जाते हैं । उस समय भी लडकियों को नर्स का कोर्स करवाना बडे बडे घरों मे सम्मान की नज़र से नहीं देखा जाता था। मुझे भी इस कोर्स के लिये पिता जी मान नहीं रहे थे मगर मेरा बडा भाई अमृतसर मेडिकल कालेज मे ही MBBSकर रहा था जब मुझे MBBSमे दाखिला नहीं मिला तो उसने फार्मेसी करने के लिये पिता जी को मना लिया कि इस मे नर्सों जैसा काम नहीं होता बस दवाओं से ही वास्ता रहता है। इस लिये पिताजी मान गये थे।

मगर इस अस्पताल मे हर जगह डयूटी करनी पडती थी । और हर तरह का काम भी जो मुझे अच्छा नहीं लगता था।मैं बहुत शर्मीली और सीधी सादी लडकी थी। एक दिन एमर्जेन्सी मे केस आया । एक बज़ुर्ग को बैल ने मारा था उसके जननेन्द्री पर बहुत बडा घाव् हो गया जहाँ टाँके लगने थे । जैसे ही डाक्टर साहिब उसे देखने लगे मैं बाहर आ गयी। उनके पास वार्ड अटेन्डेट तो था ही। तभी डा़ साहिब ने मुझे बुलाया और गुस्से मे बोले कि तुम्हारी डयूटी यहाँ है बाहर क्या कर रही ह। तुम्हें पता नहीं कि स्टिचिन्ग करनी है। मैने कहा कि मुझे अभी अच्छी तरह स्टिचिन्ग नहीं आती। तो बोले कि असिस्ट तो करवाना है ।-- तुम्हें ये समझ लेना चाहिये कि यहाँ हम स्त्रि या पुरुष नहीं होते केवल डाक्टर होते हैं जिन्हें बस मरीज का इलाज करना होता है। चलो स्टिच का सामान लाओ। काँपते हाथों से केस असिस्ट करवाया अपने से भी अधिक तरस उस बज़ुर्ग पर आ रहा था जो आँखों पर हाथ रखे स्टिच लगवा रहा था । उस दिन तो पक्का ही सोच लिया कि अब ये सब मेरे बस का नहीं । दीदी ने पूछा कि क्या हुआ है तो मैने बता दिया वो फिर हँसने लगी ---- बस इतनी सी बात? तो इसमे क्या हो गया । ये तो हमारा काम है । तुम नयी हो ना धीरे धीरे सब ठीक हो जयेगा। अब इसमे ठीक होने जैसी क्या बात थी। समझ नहीं आया। आखिर शर्म हया भी तो कोई चीज़ होती है। सच मे ही ये लोग बहुत बेशर्म होते हैं।

दो चार दिन फिर ऐसे ही निकल गये। मेरा मन बिलकुल काम मे नहीं लगता था । मैने दीदी से कहा कि अगर धीरे धीरे सब ठीक ही हो जाना है तो फिर अभी मेरी डयूटी एमर्जेन्सी मे मत लगाओ जब सब ठीक हो जायेगा तब लगा देना। शायद दीदी को मुझ पर तरस आ गया उन्होंने मेरी डयूटी ापने वाले मेडिसिन के काऊँटर पर लगा दी । साथ मे दूसरी फार्मासिस्ट भी थी। वहां का महौल ऐसा था कि कई बा र्दीदी की कोई सहेली आ कर बैठ जाती आपस मे खुल कर बातें करती मुझे वो भी अच्छा नहीं लगता दीदी को इतना तो ध्यान करना चाहिये कि मैं एक अविवाहित लडकी उनके पास बैठी हूँ मगर उनके लिये ये सब बातें आम थी।बिमारी के बारे मे प्रेग्नेन्सी के बारे मे डिलिवरी के बारे मे। इतनी भी बेशर्मी क्या कि आप ये भी ना देखो कि किस के सामने बात करनी है। बाहर इतने लोग खडे होते हैं,कई बातें उनके कान मे भी पडती रहती। अब धीरे धीरे समझ आने लगा था कि इन लोगों का ये रोज़ का काम है इन्हें ना तो ये शर्म की बात लगती है, ना बुरा लगता है। अब बिमार औरतें इनके पास आयेंगी तो ऐसी ही बातें करेंगी। सोचा कि चलो देखा जायेगा जब तक चलता है काम करे जाती हूँ।

एक दिन अपनी भाभी से मैने ऐसे ही मज़ाक मे कुछ कह दिया उनकी प्रेग नेन्सी के बारे मे वो तो मेरे मुह की तरफ देखने लगी--- तुम्हें क्या हो गया आगे तो तुम ऐसी बातें नहीं करती थी । मुझे एक दम झटका लगा ये सब धीरे धीरे का असर था शायद। दो तीन महीने मे मुझे कुछ सहज सा लगने लगा, जो बातें सुन देख कर मुझे गुस्सा आता था वो अब तटस्थ भाव से देख सुन लेती। कई बार सोचती कि अब मुझे गुस्सा क्यों नहीं आता दीदी की बातों पर। शायद अब मैं भी बदल रही थी। उसके बाद कई मौतें हुई एमर्जेन्सी मे । रोने की आवाज़ सुनती तो मन मे दुख तो होता मगर उस तरह से रोना नहीं आता जैसे कि पहले पहले आता था। फिर भी मरीज के रिश्तेदारों को ढाडस बन्धवाना आदि से अपने को रोक नहीं पाती। मगर अब लगने लगा था कि धीरे धीरे कोई चीज़ जरूर है जो इन्सान को पत्थर बना देती है, शायद मैं भी पत्थर बन जाऊँगी ---सब की तरह---
मैं धीरी धीरे कैसे बदल रही हूँ ।

जब ये संस्मरण लिखना शुरू किया था तो लगता था कि छोटा सा ही है म तब इतना ही बताना चाहती थी कि आदमी एक ही जगह एक ही काम करते हुये कैसे उस काम के प्रति और वातावरण के प्रति संवेदनहीन हो जाता है ।मगर अब मुझे लगता है कि जब तक मैं सभी हालात का वर्णन नहीं करूँगी तब तक कैसे समझ आयेगा कि इन्सान को अपने अन्दर आ रहे बदलाव का क्यों पता नहीं चलता। दूसरी बात कि अस्पताल वालों को सब गालियां ही निकालते हैं, कोई उनकी मुश्किलों को क्यों नही समझता । ऐसी बात भी नहीं कि सभी जगह सभी लोग एक जैसे ही होते हैं कई वहाँ भी अच्छी बुरे दोनो तरह के लोग होते हैं मगर ऐसे तो सब जगह ही होते हैं फिर भी अस्पताल वालों की मुश्किलें कोई नही समझता । मेरा अपने लोगों के प्रति दायित्व भी बनता है कि मैं उनकी समस्या को सब के सामने रखूँ ।इस लिये इस आलेख की श्रिंखला को बढाना पडा। शायद आप लोग अच्छे से झील रहे हैं मुझे, इस बात का भी फायदा उठाना चाहती हूँ । सही है या नहीं ये आप बतायें मगर अभी मेर सफर जारी है--- मैं कैसे धीरे धीरे के प्रभाव मे आयी और कैसे निकली। एक सीधी सादी संवेदनशील लडकी कुछ समय के लिये कैसे संवेदनहीन सी बन गयी थी। मगर वो संवेदनहीनता भी नहीं कही जा सकती क्यों कि काम करते हुये खुद को डरपोक या मैदान छोड कर भाग जाने वाली कहलाना भी मुझे अच्छा नहीं लगता था। फिर ऐसे अवसरों पर पिता जी का प्रोत्साहन तो मिलता ही था।

उस दिन कुछ गर्मी अधिक थी। 10 बजते बजते आकाश पर बादल छाने लगे थे। मेरी डय़ूटी एमर्जेन्सी मे थी । साथ मे एक लेडी डाक्टर की डयूटी भी थी। मगर चाय का टाईम भी होने वाला था, तो हम सब लोग OPD मे इकठे हो जाते। डाक्टर कहने लगी कि आज मौसम अच्छा हो रहा है समोसे मगवा लेते हैं। किसी को समोसे लेने भेज दिया। देखते देखते आसमान काला होने लगा। कई मरीज बिना दवा लिये घर भागने लगे। डाक्टर ने बाहर बरामदे मे अपनी कुर्सी रखवा ली और हम लोग भी मौसम का आनन्द लेने लगे।नंगल शहर को नहरों और पहाडों का शहर कहा जाता अस्पताल के सामने पहाड और हरियाली देखते ही बनती है। एक दम ऐसा लगने लगा जैसे रात हो गयी है मन मे हम लोग डर भी गये थे कि बहुत बडा तुफान आने वाला है। OPD पोरी तरह मरीज़ों से खाली हो गयी। शायद डाक्टर ने हमारे तनाव को भाँप लिया था| उन्होंने अचानक हमे एक गीत सुनाना शुरू कर दिया। उनकी आवाज़ इतनी सुरीली थी कि हम लोग उसमे खो गये।

------- क्रमश :

02 September, 2009

सवेदनाओं के झरोखे से--संस्मरण --3


उस दिन मैं घर गयी तो जाते ही लेट गयी। खाना भी नहीं खाया। रह रह कर उस लडकी का चेहरा मेरी आँखों के सामने आ जाता। कैसे होगा उनके घर का गुज़ारा कोई और कमाने वाला भी नहीं । मा भी पढी लिखी नहीं थी उसकी । क्या ऐसे दुख भी होते हैं ---- माँ ने पूछा कि क्या बात है --तो मैने बताया कि आज एक आदमी की मौत हो गयी उसी से मन ठीक नहीं है। माँ भी समझाने लगी कि वह अस्पताल है वहाँ तो रोज़ ही ऐसे केस आते रहें गे तो क्या तू ऐसे ही रोयेगी? चल उठ खाना खा ले, धीरे धीरे सब ठीक हो जायेगा । अभी तूने ये सब पहले कभी देखा नहीं इस लिये। फिर पिताजी आ गये--* मेरी लाडली बेटी को क्या हुया? * मा ने बताया तो मेरे सिर पर हाथ फेरने लगे--- बेटा ये तो ज़िन्दगी की शुरूयात है अब समझो कि ज़िन्दगी शुरू हुई है । दुख और सुख जीवन के दो पहलू हैं आगर दुख ना हो तो सुख का कोई महत्व नहीं रह जाता । मगर यही दुख ज़िन्दगी की पाठशाला है । इन से ही आदमी मे दया, करुणा ,प्रेम क्षमा आदि संवेदनाओं का समावेश होता है। आज जिस तरह तुम मे रहम की भावना का उद्भव हुया है बस इसे समेट लो और हर दुखी के लिये ये भावना जब उपजेगी तो तुम्हें एक अच्छा इन्सान बनायेगी। तुम मे इन को सहन करने की शक्ति विकसित करनी होगी जो समय के साथ हो जाती है बस इतनी सी बात है। अब मन मे ठान लो कि दुखी की सेवा करनी है इसी लिये तुम्हें ये नौकरी मिली है। बात करने का ढंग था। सब कहते कि धीरी धीरे तुम इनकी आदि हो जाओगी मगर आदी होने मे और पिता जी की बातों मे अन्तर समझ आ गया था।
3 - चार दिन आराम से निकल गये । दीदी जब दवा की खिडकी पर बैठी होती तो मैं उनके पास बैठ कर उनके काम करने के तरीके को देखती रहती। हम लोग अन्दर से दरवाज़ा बन्द कर लेते बाहर भीड इतनी होती कि 50--60 मरीज खिडकी पर खडे ही रहते दवाईयाँभे उस समय अस्पताल मे बहुत मिलती थीं । भाखडा दैं का काम जोरों पर होने से शहर की जनसंख्या भी दिन पर दिम बढ रही थी।100 बिस्तर का अस्पताल था मगर 200 से कम मरीज दखिल नहीं रहते बरामदों मे भी अपने बिस्तर ला कर लोग इलाज करवाते थे।

मैं देखती कि दीदी बहुत ऊँचे बोलती हैं और जल्दी जल्दी से मरीज़ को खिडकी से हटने की हिदायत भी देती।लगातार बोलते जाना--- जल्दी करो --लाईन मे आओ--- ये इतने दिन की दवा है --- ये ऐसे खानी है--- इतने इतनी रोज़ खानी है आदि अब दिन मे कम से कम 700 मरीज़ नया पुराना 6 घण्टे मे निपटाना कोई आसान काम नहीं था दो जने भी बहुत मुश्किल से निपटा पाते अगर कोई मरीज़ दूसरी बार कुछ पूछ लेता तो दीदी डाँट देती--- अपना ध्यान इधर रखा करो हम कोई बादाम खा कर नहीं आते कि सारा दिन भौँकते रहें ---- । मुझे बहुत अजीब लगता बेचारे मरीज के मुँह की तरफ देखती रहती। कई मरीज तो लडने पर उतारू हो जाते तो ये समझ नहीं पाती कि कसूर किस क है। कभी मरीज पूरे दिन दवा खा चुका होता तो दीदी कहती जाओ पर्ची रिपीट करवा के आओ तो मरीज कहता कि भीड बहुत है आज दे दो कल करवा लूँगा । दीदी का मूड सही होता तो दे देती नहीं तो डाँट के भगा देती मुझे तब भी बहुत बुरा लगता कोई मरीज़ इतना दुखी होता कि खडा भी नहीं हो पाता वो लाईन से निकल कर दवा लेने आता तो दीदी डाँट देती मुझे बहुत तरस आता मगर दीदी कहती तुम्हें नहीं पता खिडकी पर आ कर सभी ऐसे बन जाते हैं मैं किस किस को देखूँ कि अधिक बीमार है या कम । लाईन मे लगे लोगों की गालियाँ नहीं सुननी मुझे। मतलव कि यहाँ भी मुझे यही लगता कि दीदी मे संवेदनायें मर चुकी हैं उन्हें तो किसी मशीन की तरह बस काम करने का पता है।जब कभी इन बातों पर चर्चा होती तो दीदी का वही पुराना जवाब धीरे धीरे सब समझ जाओगी और तुम भी ऐसी ही हो जाओगी।

इस धीरे धीरी ऐसी ही हो जाओगी मेरी जहन मे इतना घर कर गया कि हर बात पर मैं सोचने लगती कि अगर मैं ऐसी ही हो जाऊँगी तो मैं नौकरी छोड दूँगी मगर पत्थर दिल नहीं बनूँगी। मगर ये बदलाव सच मे इतने धीरे धीरे ही होता है कि इन्सान को पता भी नहीं चलता और वो इस से बचने के लिये अपने पक्ष मे कई बहाने घड लेता है। जैसे बच्चा हर वक्त मा के पास रहता है उसे कब पता लगता है कि किस दिन कितना कद बढा । मशीन की तरह काम करते हुये आदमी मशीन हो जाता है।

तीन चार दिन बाद पुलिस एक व्यक्ति की लाश ले कर आयी जो कि नहर से मिली थी उसका पोस्टमार्टम करवाना था। इस बा र्यहाँ किसी और फार्मासिस्ट की डयूटी थी। मगर दीदी ने कहा कि मुन्नी को भी अब सीखना पडेगा ये सब मैं जाती हूँ और इसे साथ ले जाती हूँ,तुम मेरी सीट देख लो। डाक्टर साहिब तैयार खडे थे। मुझे भी जाना ही पडा। वहाँ मार्चरी मे इतनी दुर्गन्ध आ रही थी मेरा मन खराब होने लगा। सफाई सेवक ने अगरबत्ती जलाई और खिडकियाँ दरवाजे खोले। इसके बाद हम सब लाश के पास खडे हो गये पहली बार इस दृ्श्य को देखा था लाश से दुर्गन्ध आ रही थी सफाई सेवक ने उस पर से कपडा उठाया तो मैं जरा पीछे हट गयी सभी के समने नँगी लाश को देखना अच्छा नहीं लगा। मगर दीदी नी बजू पकड कर साथ खडा कर लिया। सफाई सेवक ने पहले उसके पेट को चीरा और एक एक अंग निकाल कर डाक्टर को दिखाया और उसे जार मे रख्ता गया इस तरह उसने 5-6 जार तैयार किये । डाक्टर ने सभी कुछ नोट किया दीदी ने लाश का माप आदि लिया। मुझे एक दम वोमिट आयी और मैं बाहर भागी। आज तो मन मे पक्का सोच लिया था कि मैं नौकरी नहीं करूँगी। वपिस जा कर दीदी ने फटा फट चाय मंगवाई और साथ मे विसरा पैक करने लगी। वहीं टेबल पर विसरा पडा था और वहीं वो खडे हो कर चाय पी रही थी। मैने कहा दीदी आप बिना नहाये चाय कैसे पीने लगी। लाश के पास हो कर जो आते है वो पहले नहाते हैं फिर खाने की चीज़ को हाथ लगाते हैं, फिर आपने तो लाश को छूआ भी है। दीदी हंस पडी--धीरे धीरे सब जान जाओगी----- अब इसमे जानने की क्या बात है, यही सोचते हुये घर चली गयी मगर जा कर उस दिन भी खाना नहीं खाया गया। उल्टी सी आने को होती रही । नहा कर मैं सो गयी। सोचा शाम को पिताजी से बात करूँगी मुझे ये नैकरी नहीं करनी ये अस्पताल वाले तो निर्दयी और पशूओं जैसे हैं। इन्हें जिन्दा या मरे मे भी फर्क नज़र नहीं आता_।

फिर वही धीरे धीरे सब ठीक हो जाता है----- शायद--- क्या मै भी ऐसी ही हो जाऊँगी-------क्रमश:

01 September, 2009

संवेदनाओं के झरोखे से-2---संस्मरण

पिछले अंक मे घटना का जिक्र किया था कि कैसे लगता है किसी को अपने आस पास के वातावरण के प्रति संवेदनहीन होते देख कर । मैं तो इतनी पत्थर दिल नहीं हो सकती कि पास मे तीन लाशें पडी हों और मै उनके सामने चाय पी लू। मगर् दीदी कहती कि देखना तुम भी असिएए ही हो जाओगी। और उनकी ये बात मैं हमेशा याद करती रहती ताकि मैं भी उस तरह की ना बन जाऊँ। आब बात करती हूँ अपनी नैकरी के पहले दिन से तभी वो सब कह पाऊँगी जो कि मैं कहना चाहती हूँ कि कैसे धीरे धीरेिआदमी मे परिवर्तन आता है अगर वो समय समय पर आत्मचिन्तन ना करे या फिर उसके अपने साथ कोई घटना ना घटे तो वो संवेदनहीन हो जाता है। पहला दिन तो दफ्तर की फारमैलितीज़ पूरी करते हुये बीत गया । उसमे दीदी सारा दिन मेरे साथ रही ।मैने कहा भी कि दीदी मैं करवा लूँगी काम आप अपना काम करें तो उन्होंने कहा --*मुन्नी तुम्हें नहीं पता कि ये कलर्क लोग कितने खराब हैं मैं तुम्हें अकेले दफ्तर मे नहीं भेजूँगी।* उनकी आत्मीयता देख कर मन मे उनके प्रति आदर भाव और बढ गया।

जब मैने डिप्लोमा के बाद 3 माह की practical training उनके पास ली थी तब भी उनके प्रति बहुत आदर था वो सख्ती से जरूर पेश आती मगर हमारे फायदे के लिये ही । वैसे भी उनक रोब पूरी OPD ही नहीं पूरे अस्पताल मे था। इमानदारी,. अपने काम के प्रति निष्ठा ,साफ आचरण बहुत सी ऐसी बातें थी जिन से मैं बहुत प्रभावित थी। मुझे अपनी बेटी की तरह ही समझा और प्यार दिया।उन से सब डरते थे । दफ्तर के बाद हम लोग OPD मे आ गये। उस दिन दीदी ने मुझे काफी काम समझा दिया। उनकी डयूटी दवा के मैन counter पर थी साथ मे एक जुनीयर फार्मासिस्ट थी क्यों कि दीदी को emergency भी देखेनी होती सब फार्मा सिस्ट्ज़ की डयूटी भी लगानी होती थी। पूरी OPD सफाई आदि भी देखनी होती थी।उस समय वहाँ कुल 18 फार्मासिस्ट थे जो कि आम अस्पताल से 3 गुना अधिक थे। female हम तीन थी। उस समय भाखडा डैम् का काम बहुत जोरों पर चल रहा था । अस्पताल भी बहुत बडा था। इसे आज भी मिनी पी जी आई कहा जाता है । क्यों कि इसका खर्च भाखडा बोर्ड ही वहन करता था और दवा और साधनों की कमी नहीं थी। खैर अब पिछली बात पर आती हूँ।

अस्पताल मे आज दूसरा दिन था। पहले दिन तो दीदी के साथ काम समझती रही। अगले दिन मेरी डयूटी एमर्जेन्सी विभाग मे लग गयी ।कुछ दिन के लिये दीदी की डयूटी भी मेरे साथ ही लगी ताकि मैं काम सीख जाऊँ। वैसे मैने प्रेक्टीकल टरेनिन्ग भी यहीं ली थी इस लिये काम तो जानती ही थी। उस टरेनिन्ग के दौरान तो देखा बहुत कुछ था मगर जब ऐसे केस आते तो मैं अकसर दूसरे कमरे मे चली जाती। रोने चीखने की आवाज़ सुन कर बाहर नहीं आती दूसरे कमरे मे ही रोने लगती। मुझे लगता था कि मैं अस्पताल मे नौकरी नहीं कर पाऊँगी। दुख कभी देखा ही नहीं था। खुशहाल बचपन से सीधी इस जगह पर आ गयी थी।

आठ बजे डय़ूटी शुरू ही हुई थी कि एक केस आ गया। सभी उस मरीज के इलाज मे जुट गयी मगर उसे बचा नहीं पाये। मरीज की मौत हो गयी उम्र कोई 40 साल थी ।पहली बार किसी को सामने मरते देखा था। समझ नहीं पा रही थी कि ऐसे कैसे आदमी मर जाता है। उसके साथ उसकी दो बेटियाँ और पत्नि थी। उनकी चीख पुकार सुन कर मैं भी रोने लगी। वहाँ अपने अस्पताल के सब से बजुर्ग डाकटर की डयूटी थी। मुझे रोते देख उन्हों ने मुझे डाँट दिया---* ये क्या तमाशा है तुम डयूटी पर हो । जाओ दूसरे कमरे मे और यहां किसी और को भेज दो।* फिर बाद मे जब सारा काम हो गया और सब लोग उस मृतक को ले कर चले गयी तो डाक्टर साहिब ने मुझे बुलाय और समझाया कि इतने संवेदनशील नहीं होना चाहिये। मैं उनकी बातें सुन कर फिर OPD मे चली गयी वहां जाते ही मेरी फिर रुलाई फूट पडी। इस आदमी की बेटी और पत्नि का चेहरा बार बार आँखों के सामने घूम जाता।

फिर दीदी ने समझाया कि देखो पहले पहले सब के साथ ऐसे ही होता है फिर धीरे धीरे आदत पड जाती है और कह कर वो जोर से हँस पडती---- मुझे मन से अच्छा नहीं लगता क्या धीरे धीरे हमारी संवेदनायें मर जाती हैं? किसी का दुख देख कर हमारी आँखें नम क्यों नहीं होती। तभी तो सभी कहते हैं कि अस्पताल वाले रूखे स्वभाव के होते हैं। उन मे रहम कम होता है आदि आदि। मगर मैं ऐसी नहीं हो सकती। मैं इनकी तरह पत्थर नहीं बन सकती। मुझे लगता है जब मैने ये संस्मरण लिखना शुरू किया था तो बात छोटी सी लगी अब लगता है जब तक इसे पूरी तरह कुछ और दिनों की बातें नहीं कहूँगी तब तक जिन संवेदनाओं की मैं बात करना चाहती हूँ नहीं कर पाऊँगी। इस लिये आपको इसे अभी 1--2 भागों मे और झेलना पडेगा।-----अभी तो शायद भूमिका ही बाँध पाई हूँ अपने असली मुद्दे की।

क्रमश:

31 August, 2009

जीवन के कुछ संस्मरण ---- संवेदनाओं के झरोखे से

जैसे ही बरामदे मे कदम रखा लोगों की भीड देख कर डर गयी एमेरजेंसी रूम तक आते आते पता चला कि एक परिवार की गाडी दुर्घटना ग्रस्त होने से घर के तीन सदस्यों की मृत्यु हो गयी है और तीन लो ग बुरी तरह घायल हैं दो को कुछ कम चोट लगी है । मन दुखी हो गया। रूम मे तीन लाशें पडी थी घायलों को वार्ड मे शिफ्ट किया जा रहा था। सामने ही दूसरे कमरे मे से मेरी सीनियर जिसे मैं दीदी कहती थी उन्होंने मुझे देखा तो आवाज़ दी।
"जी दीदी " मेरी आवाज़ जैसे गले मे अटक रही थी। कभी ऐसा दृश्य देखा ही नहीं था । अभी अस्पताल मे मेरी नौकरी का ये तीसरा ही दिन था।

" मुन्नी,ऎसा करो वार्ड अटेँडेन्ट से कहो कि मरीज़ शिफ्ट करवा के इन शवों को बाहर रखवा दे और 4 कप चाय के ले आये। हाँ साथ मे कुछ खाने के लिये भी।" और डाक्टर ने भी उनकी हाँ मे हँ मिलाई। मैं नयी और उम्र मे उनसे बहुत छोटी थी इस लिये वो प्यार से मुझे मुन्नी कहने लगी थी यूँ भे मैं बहुत पतली दुबली थी और उम्र से छोटी लगती थी उनके बुलाने से अस्पताल के सभी लोग मुझे मुन्नी के नाम से ही बुलाने लगे थे मुझे अच्छा भी लगता था। आज 37 साल बाद भी { आज तक भी शहर मे अधिक लोग मुझे मुन्नी के नाम से जानते हैं किसी की मुन्नी दीदी किसी की मुन्नी आँटी , आगे उनके बच्चों की मुन्नी नानी बन गयी हूँ।} हाँ तो मैं बात कररही थी उस दिन की-----

मैं उनकी बात सुन कर सन्न रह गयी ऐसे मे दीदी यहां बैठ कर चाय कैसे पीयेंगी उनका मन कैसे कर रहा है चाय पीने के लिये \ वो मेरी सोच से बेखबर अपने रजिस्टर पर नज़रें गडाये काम कर रही थी डक्टर साहिब उनके मेडिकल रिपोर्ट तैयार कर रहे थे। वार्ड अटेण्डेण्ट अपना काम करने लगा और मैं बाहर जा कर बरामदे मे खडी हो गयी

वार्ड अटेन्डेंट ने चाय ला कर कप मे डाली और सब के सामने रख दी भीड वार्ड की ओर चली गयी मगर शवों के पास बरामदे मे अभी भी कई लोग खडे थे। एक औरत और एक लडकी बहुत जोरों से रो रही थी। मैं भी उन्हें चुप करवाने की बेकार कोशिश करने लगी और मेरे आँसू रुकने का नाम नहीं ले रहे थे।उस औरत का पति और जवान बेटा मारे गये थे साथ मे डराईवर मारा गया। ऐसा दृश्य देख कर कौन ना रो उठेगा। तभी अन्दर से दीदी की आवाज़ आयी । अंदर आयी तो चाय आ चुकी थी। "लो चाय पीओ" दीदी ने बिना नज़र उठाये कहा।
"दीदी मैं नहीं पीऊँगी।''दीदी ने नज़र उठा कर मुझे देखा---- ''अरे तुम रो रही हो ? अब ये तो रोज़ का काम रहेगा कब तक रोती रहिगी?न चलो चाय पीओ।
"अभी नयी है ना इसलिये अपने आप कुछ दिनो मे आदी हो जायेगी।" डाक्टर साहिब धीरे से मुस्कराये।
ये लोग इतने संवेदन हीन कैसे हो सकते हैं बाह्र तीन लाशें पडी हैं लोग रो रहे हैं और ये लोग मज़े से चाय पी रहे हैं। मन क्षुब्ध सा हो गया
'देखो मुन्नी हम लोग दस बजे से एक टाँग पर खडे हैं सुबह 8 बजे का एक कप चाय का पीया है उसके बाद समय ही नहीं मिला आब तो टाँगे भी काँप रही हैं अगर ये चाय ना पी तो घर तक भी नहीं पहुँचा जायेगा। फिर ये तो रोज़ का काम है ।हम भी अगर इसी तरह रोते रहे तो काम कौन करेगा \पता है जो जख्मी हैं उनकी हालत कैसी थी बहुत कोशिश के बाद उन्हें स्टबल कर पाये फिर खुद डाक्टर साहिब की तबीयत भी ठीक नहीं। चलो चाय पीओ देखना तुम भी एक दिन ऐसी ही हो जाओगी सी ? " खैर मैने चाय दूसरे कमरे मे जा कर वाशबेसिन मे फेंक दी।
मैं सोचने लगी कि सच मे आदमी इतना संवेदन्हीन हो सकता है? कुछ भी हो मैं ऐसी नहीं हो सकती।

बचपन खुशियों से भरा था। दुख क्या होता है जाना ही नहीं था तभी तो कहीं आस पडोस मे जरा सी दुख की बात हो, किसी को जरा सा दुख हो जाये तो आँसू थमने का नाम नहीं लेते थे। दिल पसीज उठता था।
जब अस्पताल मे मेरी नयी नयी नौकरी लगी तो बहुत खुश थी। मैने जिद करके मैडिकल मे दाखिला लिया था । एम बी बी एस मे तो दाखिला नहीं मिला मगर फार्मेसी मे दाखिला ले कर सोचा था कि इसके बाद बी फार्मेसी कर लूँगी। खैर हमेशा इन्सान के चाहने से क्या होता है । डिप्लोमा करते ही 2 माह मे नौकरी मिल गयी और घर वालों को शादी की चिन्ता थी इसलिये आगे ना पढ सकी। घर पर बी ए की तयारी करने लगी।

इस नौकरी को भी मैं अपने लिये वरदान समझती थी। पिता जी कहा करते थे कि वो लोग भाग्यवान होते हैं जिन्हें आजीविका कमाने के साथ साथ लोगों की सेवा करने का अवसर मिलता है। और मैं ये अवसर खोना नहीं चाहती थी इस लिये नौकरी join कर ली। नयी नयी नौकरी थी। बहुत खुश थी। मगर दो तीन दिन मे ही लगने लगा कि ये सफर इतना आसान नहीं है जितना मैने सोचा था।ास्पताल मे तो सब दुखी ही आते हैं । मैं उनके दुख देख कर द्रवित हो जाती और कई बार रोने लगती। अभी पहला दिन ही था मुझे इस अस्पताल मे आये कि एमरजेँसी विभाग मे एक मरीज़ की मौत हो गयी।उम्र कोई 40 वर्श के आस पास होगी।------ क्रमश:
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