18 June, 2010

कर्ज़दार---2

कर्ज़दार
पिछली कडी मे आपने पढा कि प्रभात की माँ ने अपने पति की मौत के बाद कितने कष्ट उठा कर बच्चों को पढाया प्रभात की शादी मीरा से होने के बाद प्रभात ने सोचा कि अब माँ के कन्धे से जिम्मेदारियों का बोझ उतारना चाहिये। इस लिये उसने अपनी पत्नि को घर चलाने के लिये कहा और अपनी तन्ख्वाह उसे दे दी। ------अब आगे पढें----

प्रभात ने सोचा कि माँ खुश हो जायेगी कि उसके बहु बेटे उसका कितना ध्यान रखते हैं।-------
मगर माँ सुन कर सन्न रह गयी--
: बेता तेरी पत्नि आ गयी तो क्या घर मे मेरी कोई अहमियत नही रह गयी? अभी बेटी की शादी करनी है घर के और कितने काम है क्या अब इस उम्र मे बहु के आगे हाथ फैलाऊँगी?" माँ गुस्से मे भर गयी।
प्रभात एक दम सावधान हो गया वो समझ गया कि माँ अपने साम्राज्य पर किसी का अधिकार नही चाहती। आखिर कितने यत्न से उन्हों ने अपने इस साम्राज्य को संजोया था। इसकी एक एक ईँट उनके खून पसीने से सनी है।वो कैसे भूल गया कि माँ को ये स्वीकार नही होगा। ये घर उनका आत्मसम्मान , गर्व और जीवन था। शायद  माँ ठीक ही तो कह रही है वो क्यों मीरा के आगे हाथ फैलाये । शायद प्रभात ने फैसला लेने से पहले इस दृष्टीकोण से सोचा ही नही था। एक अच्छे और आग्याकारी पुत्र होने के प्रयास मे वो कितनी बडी भूल कर गया था। उसने जल्दी से तन्खवाह रमा के हाथ से ले कर माँ के हाथों मे सौंप दी। वो माँ की भावनाओं और एकाधिकार को चोट नही पहुँचाना चाहता था।
 मीरा को भी एक झटका लगा। उसने तो समर्पित भाव से इस जिम्मेदारी को सम्भालने के लिये इसमे हामी भरी थी न कि माँ के अधिकार छीनने के लिये। फिर भी उसे माँ की ये बात अच्छी नही लगी कि वो बहु के आगे हाथ फैलायेगी। मीरा ने सोचा अब वो भी तो अपनी जरूरतों के लिये माँ से ही माँगती है जब कि उसका पति कमाता है। फिर भी वो चुप रही और तन्खवाह माँ जी को दे दी।लेकिन अनजाने मे ही उसने सास बहु के रिश्ते मे एक दरार का सूत्रपात हो चुका था।
मीरा पहले अपनी जिस् इच्छा को मन मे दबा लिया करती थी धीरे धीरे वो उसके होठों तक आने लगी। माँ से जेब खर्च के लिये पैसे माँगते उसे अब बुरा लगने लगा। जब उसे माँ बेगाना समझती है तो वो क्यों इस घर की परवाह करे। शादी के बाद उसका कितना मन था कि वो दोनो कहीं घूमने जायें मगर माँ के सामने बोलने की कभी हिम्मत नही हुयी। माँ हमेशा सुनाती रहती थी बडी मुश्किल से घर चल रहा है। एक दिन उसने प्रभात से कहा
:"प्रभात एक वर्ष हो गया हमारी शादी को हम कहीं घूमने नही गये।चलो कुछ दिन कहीं घूम आते हैं।:
:"मैं मा से बात करूँगा।अगर मान गयी तो  चलेंगे।"
मीरा को उसका ये जवाब अच्छा नही लगा। क्या हमारा इतना भी हक नही़ कि कही घूम आयें।
अगले दिन प्रभात ने माँ से बात की तो माँ ने" देखूँगी" कह कर  टाल दिया। माँ को चिन्ता थी कि अगले महीने बेटी की M.B.A. की फीस जमा करवानी है। लोन की किश्त देनी है। जितना पैसा था छोटे को विदेश भेजने मे लगा दिया। फिर अभी बेटी की शादी भी करनी है। इस तरह की फिजूलखर्ची के लिये कहाँ पैसा है। यूँ भी माँ कुछ सचेत हो गयी थी। उसे लगा मीरा इसी लिये चाहती थी कि खर्च उसके हाथ मी आये तो वो अपनी फिजूलखर्ची करे। कहीं उसने बेटे को पूरी तरह वश मे कर लिया तो तो घर उजड जायेगा इस लिये उन्हें बाहर अकेले घूमने की आज़ादी देना नही चाहती थी अब उसे मीरा का समर्पणभाव झूठा लगने लगा था।
प्रभात ने मीरा से  दो तीन महीने बाद जाने का वायदा कर लिया
धीरे धीरे सास बहु के बीच शीत युद्ध् सा चल पडा अविश्वास की नींव बनने लगी थी।और् दो तीन माह मे ही ये तल्खी पकडने लगा। मीरा को अपने लिये जब भी कोई चीज लेनी होती तो सास से पैसे माँगने पडते थे।कहीं किसी सहेली के घर जाना तो भी आग्या ले कर कभी दोनो को पिक्चर देखने जाना होता तो माँ की इजाजत लेकर वो भी कई मार माँ टाल देती कि खर्च बहुत हो गया है। फिर कभी देख लेना। मीरा ने चाहे कभी माँ को किसी बात के लिये जवाब नही दिया कभी ऊँचे मे बात नही की अनादर नही किया। मगर सास बहु की अस्तित्व की लडाई शुरू हो चुकी थी।
अब मीरा को नौकरी मिल गयी थी मीरा खुश थी मगर माँ चिन्तित। अब घर मे काम काज की भी समस्या आने लगी प्रभात ने कहा भी कि नौकर रख लेते हैं मगर माँ ने कहा
"क्या नौकरों के सिर पर भी कभी घर चलते हैं? सफाइयों वाली लगा लो बाकी काम के लिये नही। मैने भी तो इतने साल नौकरी की 3-3 बच्चे पाले मगर किसी काम के लिये कोई नौकरानी नही लगायी। माँ ने गर्व से सिर उठया मगर प्रभात को वो गर्व से अधिक दर्प लगा मगर वो कुछ नही बोला और मीरा भी पैर पटकती हुयी अन्दर चली गयी।
प्रभात महसूस कर रहा था कि माँ नाज़ायज ही मीरा पर दबाव बना रही है। अपने जमाने से तुलना करना कितना सही है ? उसे माँ का ये व्यवहार अच्छा नही लगा। आजकल और पुराने रहन सहन मे कितना अन्तर है? आज सफाई.बर्तन खाना पीना कितना बदल गया है पिछले जमाने मे एक कमरे मे लोग गुजारा कर लेते थी आज सब को अलग बेड रूम चाहिये। घर बडा सामान अधिक तो देखभाल भी उतनी ही बढ गयी है खाना पीना् रहन सहन उतना ही हाई फाई होगया है।
मीरा नौकरी के साथ साथ घर का पूरा काम सम्भाल रही थी सफाई वाली लगा ली थी मगर बर्तन कपडे सब उसे ही करने पडते थे। कई बार मीरा की तबीयत सही नही होती तो माँ को या प्रभात की बहन को काम करना पडता तो घर मे तूफान आ जाता बहन के पास पढने का बहाना और माँ के पास बुढापे का। मीरा सोचती कि कभी तो आराम उसे भी चाहिये फिर क्या मेरी कमाई का आनन्द ये लोग भी तो उठा रहे हैं।--- क्रमश:

16 June, 2010

karzdar

जब तक नया कुछ लिख नही पाती तब तक अपनी पुस्तक मे से कहानियां  ही पोस्ट कर रही हूँ। ये कहानी मेरी पुस्तक  वीर्बहुटी मे से है और दैनिक जागरण समाचार पत्र मे भी छप चुकी है।

कर्ज़दार--कहानी

"माँ मैने तुम्हारे साम्राज्य पर किसी का भी अधिकार नही होने दिया इस तरह से शायद मैने दूध का कर्ज़ चुका दिया है"---- प्रभात ने नम आँखों से माँ की तरफ देखा और जा कर  पुलिस वैन मे बैठ गया।
अभी वो दुनिया को पहचान भी नही पाया था कि उसके पिता एक दुर्घटना मे मारे गये। माँ पर तो जैसे दुखों का पहाड टूट पडा। घर मे कोई कमाने वाला नही था मगर उसके मामा की कोशिशों से उसकी माँ को पिता की जगह दर्जा चार की नौकरी मिल गयी। प्रभाट का एक भाई और एक बहन थे। प्रभात सब से बडा था। उसकी माँ ने इतनी कम तनख्वाह मे भी तीनो भाई बहनों को उच्च शिक्षा दिलवाई। प्रभात को वकालत छोटे को इन्जनीयर और बेटी को बी एड करवाई। छोटा तो पढाई के बाद विदेश चला गया आगे पढने के लिये बहन ससुराल चली गयी। उसके बाद प्रभात की शादी मीरा से बडी धूम धाम से कर दी।
 मीरा एक पढी लिखी सुन्दर और सुशील लडकी थी। उसने आते ही घर का सारा काम सम्भाल लिया मगर घर की व्यवस्था बाजार का काम लेन देन आदि सब माँ ही देखती थी आज घर मे कौन सी सब्जी बनेगी क्या चीज़ आयेगी आदि सब  माँ के हुक्म से चलता था। वो अब रिटायर भी हो चुकी थी और जब शादी के बाद बीमार हुयी तब से कुछ कमजोर भी हो गयी थी। बाजार आते जाते ही थक जाती थी। घर का काम तो बहु के आते ही छोड दिया था। शायद ये सास का जन्म सिद्ध अधिकार होता है कि काम ना करे मगर घर मे हुक्म उसी का चले।
प्रभात ने सोचा कि माँ को घर चलाते हुये सारी उम्र बीत गयी अब उन्हें इस भार से मुक्ति मिलनी चाहिये। फिर उनकी सेहत भी ठीक नही रहती। उसने अकेले मे मीरा से बात की
"मीरा बेचारी माँ अकेले मे घर का बोझ ढोते थक गयी है। अब तुम आ गयी हो तो उन्हें आराम देना चाहिये।घर का काम तो तुम ने सम्भाल लिया है बाज़ार का काम हम दोनो मिल कर कर लिया करेंगे। आखिर ये घर अब तुम्हारा ही है।"
मीरा सुशील लडकी थी। उसने हाँ मे हाँ मिलाई तो प्रभात खुश हो गया।
अगले दिन वो शाम को दफ्तर से आ कर माँ के पास बैठ गया--
"माँ अपने बडे कष्ट झेल लिये अब तुम्हारी बहु आ गयी है,अब घर का सारा भार ये सम्भालेगी मै अपनी तन्ख्वाह इसे दे देता हूँ। बाजार का काम भी ये देख लेगी। आपको जो कुछ भी चाहिये बैठे बैठे हुक्म करें हाजिर हो जायेगा।अब आपके आराम के दिन हैं।"और उसने अपनी तन्ख्वाह मीरा के हाथ पर रख दी। प्रभात ने सोचा कि माँ खुश हो जायेगी कि उसके बहु बेटे उसका कितना ध्यान रखते हैं।------- क्रमश:

13 June, 2010

apanee baat

अपनी बात 
पंजाबी मे एक कहावत है "जो सुख छजू दे चौबारे ओह[वो] न बल्ख ना बुखारे". कहीं भी घूम आओ मगर जो सुख अपने घर मे आ कर मिलता है वो कहीं नही।ापने वतन वापिस लौट आयी हूँ। एक बात बार बार मन मे आ रही है कि विदेश मे सब कुछ यहाँ से बडिया था मेरे बच्चे थे प्यारी प्यारी दो नातिनें थी जिन के साथ मन भी लगा हुया था मगर फिर भी अअने घर वापिस लौटने की जल्दी थी।क्या है इन दिवारों मे .इस मिट्टी मे जो गुरुत्व आकर्षण की तरह हमे खींचता है जब कि यहाँ हम दोनो बिलकुल अकेले हैं।अगर वहाँ का रहन सहन और वातावरण देखूँ तो वहाँ कई दर्जे अच्छा था।बच्चे चाहते थे कि हम और रहें मगर दिल्ली मे छोटी बेटी की डिलैवरी होने वाली थी और वहाँ भी एक और लक्षमी हमारा इन्तजार कर रही थी। 2 जून को हमारी फ्लाट थी 3 जून को हम दिल्ली पहुँचे और वहाँ 4 जून को मेरी छोटी बेटी के बेटी हुयी। तबीयत खराब होने की वजह से मै दिल्ली भी नही ठहर पाई और  5 रात को हम  देल्ही से ट्रेन दुआरा अपने घर नंगल पहुँच गये । मुझे शायद  अमेरिका का पानी माफिक नही बैठता पिछली बार भी मै वहाँ से बीमार हो कर आयी थी और इस बार भी।अभी आराम कर रही हूँ। बहुत दिनों से कुछ लिखा नही है वहाँ जा कर जैसे सब कुछ भूल गयी हूँ कोई कविता कहानी अभी मन मे नही आयी। अभी तो ऐसे लगता है जैसे अब कुछ लिख नही पाऊँगी। बहुत दिनो की अनुपस्थिती के चलते बस पोस्ट लिखनी है इस लिये ये कुछ शब्द लिख रही हूँ। अभी तबीयत ठीक होते ही छोटी बेटी के पास शायद दिल्ली जाना पडे। कुछ परेशानियों के चलते अभी कुछ दिन और शायद कुछ न लिख पाऊँ।एक तो गर्मी भी बहुत है, वहाँ बहुत ठंड थी इस लिये और भी मुश्किल लग रहा है। कुछ दिनो मे वहाँ के कुछ संस्मरण लिखूँगी अगर सेहत ठीक रही तो। ये चार शब्द केवल अपनी अनुपस्थिती को पूरा करने के लिये ही लिख रही हूँ। लिखने को बहुत कुछ है मगर शब्द और दिमाग साथ नही दे रहा।और फिर अपने दोस्त मित्र और रिश्तेदार मिलने के लिये आ रहे हैं उन सब के बीच भी लिखने का समय नही निकाल पा रही।आप सब को पढ कर शायद फिर से कलम चलने लगे।

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