22 December, 2016

 गज़ल

तमन्ना सर फरोशी की लिये आगे खड़ा होता
मैं क़िसमत का धनी होता बतन पर गर फना होता

अगर माकूल से माहौल में मैं भी पला होता
मेरा जीने का मक़सद आसमां से भी बड़ा होता

न कलियां खिलने से पहले ही मुरझातीं गुलिस्तां में
खिज़ाओं का अगर साया न गुलशन पर पड़ा होता

करें क्या गुफ्तगू उससे चुरा लेता है जो से नज़रें
बताता तो सही मुझसे अगर शिकवा गिला होता

कुरेदा है मिरे ज़ख्मों को अकसर तूने फितनागर
यकीं करते न अपना जान कर तो  क्यों दगा होता

परिंदे ने भी देखे थे बुलंदी के कई सपने
न दुनिया काटती जो पंख तो ऊँचा उड़ा होता

न हरगिज़ भूख लेजाती उन्हें कूड़े के ढेरों पर
गरीबों के  लिए सरकार ने गर कुछ किया होता\

17 November, 2016

गज़ल
मुहब्बत को किसी भी हाल में सौगात मत कहिये

जो गुज़रे हिज्र में उसको सुहानी रात मत कहिये


खुशी से जो दिया उसने यही बस प्यार है उसका

खुदा की नेमतें कहिए  इन्हें खैरात मत कहिये *


कहीं पर भी न उलझेगी कहानी फिर मुहब्बत की

 किसी से तल्ख़ लहजे में ज़रा सी बात मत कहीए


कोई उसको दिल ए बीमार का दे दे पता जाकर"

तड़पती हूँ मैं उसके वास्ते दिन रात  मत कहिये


सियासत दिल में नफरत के हमेशा बीज बोती है

सियासत है ज़माने में किसी के(  साथ) मत कहिए

   
 ख्यालों के परिंदों को अगर परवाज़ से रोका"

 ज़ुबाँ पर फिर हमारी आएंगे  नगमात मत कहिये


शराफत आज तक ज़िंदा है जिसके दम से दुनियां में"

वो आला मरतबत है शख़्स कम औकात मत कहिये।


ग़रीबी असमतें भी ला के बाज़ारों में रखती है"

बहुत मजबूरियां होंगी उसे बदज़ात मत कहिये


मैं अपनी हर खुशी लिखती हूँ उसको नाम ऐ निर्मल

मुहब्बत में हो मेरी जीत उसकी मात मत कहिये

24 September, 2016

गज़ल 


वक्त से थोडा प्यार कर लेना
आदतों में सुधार कर लेना

बात हो सिर्फ प्यार की जानम
आज शिकवे उधार कर लेना

जो जहां ने दिए हैं खंजर वो
सुन तू सब्रो करार कर लेना

मत खुशी में बुलाना  चाहे तू
गम में मुझ को शुमार कर लेना

रोज तकरार से तो अच्छा है
फैसला आरपार कर लेना

देश के वास्ते अगर हो सके
तो दिलो जां निसार कर लेना

28 July, 2016


एक नई गज़लें
1
किसी को दर्द हो सहती नहीं मैं
हो खुद को दर्द पर कहती नहीं मैं

थपेडे ज़िन्दगी के तोड़ देते
नहीं इतनी भी तो कच्ची नहीं मैं
सलीका जानने का फायदा क्या
अमल उस पे अगर करती नहीं मैं
मुकद्दर के तसीहे नित सहे पर
यूं हाहाकार भी करती नहीं मैं
वफ़ा उनको न आये रास चाहे
जफ़ा लेकिन कभी करती नहीं मैं
न मेरे साथ तुलना हो किसी की
सुनो मैं भीड़ का हिस्सा नहीं हूँ
जताऊँ जो किया उसके लिए था
मगर उनकी तरह हल्की नहीं मैं
मैं खुद की सोच पर चलती हूँ निर्मल
किसी के जाल में फंसती नहीं मैं
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इसी बह्र पर एक पुरानी गज़ल
कमी हिम्मत में कुछ रखती नहीं मैं
बहुत टूटी मगर बिखरी नहीं मैं
बड़े दुख दर्द झेले जिंदगी में
गो थकती हूँ मगर रुकती नहीं मैं
खरीदारों की कोई है कमी क्या
बिकूं इतनी भी तो सस्ती नहीं मैं-
रकीबों की रजा पर है खुशी अब
कहें कुछ भी मगर लडती नहीं मैं
बडे दिलकश नजारे थे जहां में
लुभाया था मुझे भटकी नहीं मैं
मुहब्बत का न वो इजहार करता
मगर आँखों में क्यों पढती नहीं मैं
अगर चाहूँ फलक को छू भी लूँगी
बिना पर के मगर उड़ती नहीं मैं

08 July, 2016


गज़ल

रेत हाथों से फिसलने मे भी लगता वक्त कितना
ज़िन्दगी को यूं सिमटने मे भी लगता वक्त कितना

चाहतों की बेडिओं मे उम्र भर  जकडे  रहोगे   ?
बेवफा  रिश्ते  बदलने मे भी लगता वक्त कितना

चाँदनी रातों के साये  मे है जुग्नू छटपटाता
सुख के आने गम छिटकने मे भी लगता वक्त कितना

चाह जन्नत की तुझे है गर  खुदा को याद तो कर
बोल रब का नाम जपने मे भी लगता वक्त कितना

जेब मे रखती हूँ ख्वाहिश लोगों को भी क्यों दिखाऊँ?
उनकी  नजरों को दहकने मे भी लगता वक्त कितना

हुस्न पे क्या नाज , चुटकी मे जवानी भाग जाये
सोच अब ये  उम्र ढलने मे भी लगता वक्त कितना

आशिआने की दिवारे पड रही छोटी अमीरों के लिये
मुफ्लिसों के घर  निपटने मे भी लगता वक्त कितना

19 May, 2016

फेसबुक पर अपने ग्रुप साहित्य संगम की फिल्बदीह 154  मे हासिल 4 गजलें


मेरे दिल की' धड़कन बनी हर गज़ल
हां रहती है साँसों मे अक्सर गज़ल

इनायत रफाकत रहाफत लिये
जुबां पर गजल मेरे दरपर गजल

कसक दर्द गम भी हैं इसमें बड़े
मगर है तजुरबों का सागर ग़ज़ल

मनाऊं तो कैसे बुलाऊँ भी क्या
जो रहती हो नाराज तनकर ग़ज़ल

है शोखी शरारत है नाज-ओ सितम
हसीना से कुछ भी न कमतर ग़ज़ल

लियाकत जहानत जलाकत भरी
मुहब्बत  से लाया है बुनकर ग़ज़ल

चिरागों से कह दो जरूरत नहीं
जलावत से आयी है भरकर ग़ज़ल

गजल 2

मुहब्बत से निकली निखरकर ग़ज़ल
खड़ी हो गयी फिर बिखरकर ग़ज़ल

कहीं तीरगी तो कहीं दर्द था
जिगर में चुभी बन के नश्तर ग़ज़ल

कशिश थी इशारे थे कहीं कुछ तो था
दिखा चाँद जैसे थी छतपर ग़ज़ल

न देखा जिसे और'  न जाना कभी
खड़ी आज मेरे वो दरपर ग़ज़ल

 मुहब्बत से छूआ उसे बार बार
बसी साँसों' में मेरी' हसकर ग़ज़ल

भले आज वल्लाह कहते हों लोग
थी दुत्कारी बेबह्र कहकर ग़ज़ल

लगी पाबंदी बह्र की और फिर
रही  काफियों में उलझकर ग़ज़ल

गजल 3
गिरी बादलों से छिटक कर ग़ज़ल
घटा बन  के बरसी कड़ककर ग़ज़ल

नजाकत बड़ी थी हिमाकत बड़ी
किसी ने भी देखी न छूकर ग़ज़ल

सहेली सहारा सभी कुछ तुम्ही
बनी आज मेरी तू रहबर ग़ज़ल

कभी दर्द कोई न उसने कहा
मगर आज रोई है क्योंकर ग़ज़ल

चुराए हैं आंसू कई मेरे पर
न अपना कहे दर्द खुलकर ग़ज़ल

शमा की तरह से जली रात दिन
सिसकती रही रोज जलकर ग़ज़ल

हरिक बार उससे मिली  आप मैं
न आयी कभी खुद से चलकर ग़ज़ल

गज़ल 4

मेरी हो गयी आज दिलबर ग़ज़ल
जो आयी है बह्रों से छनकर ग़ज़ल

रकीबो के पाले मे  देखा मुझे
लो तड़पी हुयी राख जलकर ग़ज़ल

मैं भौंचक खड़ी देखती रह गयी
गिरी हाथ से जब छिटककर ग़ज़ल

है दिल की जुबाँ एहसासो का सुर
कहीं रूह से निकली मचलकर ग़ज़ल

नहीं टूटी अब तक किसी बार से
रही मुस्कुराती है  खिलकर गज़ल

हुये दूर शिकवे गिले आज सब
मिली है गले आज लगकर ग़ज़ल

न भाता मुझे कुछ गज़ल के सिवा
रखूंगी मै दिल से लगाकर गज़ल


23 March, 2016

गज़ल होली पर



होली के तरही मुशायरे मे आद पंकज सुबीर जी के ब्लाग http://subeerin.blogspot.in/

देखिये मुहब्बत ने ज़िन्दगी छ्ली जैसे
लुट गया चमन गुल की लुट गयी हंसी जैसे

अक्स हर  जगह उसका ही नजर मुझे आया
हर घडी  तसव्‍वुर  मे  घूमता  वही  जैसे

कोई तो जफा से खुश और कोई वफा में दुखी
सोचिये वफा को भी  बद्दुआ मिली जैसे

वो चमन में आए हैं, जश्‍न सा हर इक सू है
झूम  झूम  नाचे  हर  फूल  हर कली  जैसे

खुश हुयी धरा देखी  रौशनी   लगा उसको
चांदनी उसी के लिये मुस्कुरा रही जैसे

बन्दिशे  इबारत में शायरी बड़ी मुश्किल
काफिये  रदीफों  से आज मै  लड़ी जैसे

उम्र भर सहे हैं गम दर्द मुश्किलें इतनी
हो न हो किसी की है  बद्दुआ लगी जैसे

पाप जब किये थे तब कुछ नहीं था सोचा पर
आखिरी समय निर्मल आँख हो खुली जैसे

18 March, 2016

गज़ल

         

   गज़ल
गुजारे गांव मे जो दिन पुराने याद आते हैं
सुहानी ज़िन्दगी दिलकश जमाने याद आते हैं

 वो बचपन याद आता है वो खेलें याद आती हैं
लुका छुप्पी के वो सारे ठिकाने याद आते हैं

कभी गुडियां पटोले भी बनाने याद आते हैं
 विआह उनके कभी खुश हो रचाने याद आते हैं

कभी तितली के पीछे भागना उसको पकड लेना
किसी के बाग से जामुन चुराने याद आते हैं

कभी सखियां कभी चर्खे कभी वो तीज के झूले
घडे पनघट से पानी के उठाने याद आते है

कभी फ़ुल्कारियां बूटे कढ़ाई कर बनाते थे
अटेरन से अटेरे आज लच्छे याद आते है

बडे आँगन मे सरसों काटती दादी बुआ चाची
वो मिट्टी के बने चुल्हे पुराने याद आते हैं

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